आल्हा छंद / वीर छंद
“अग्रदूत अग्रवाल”
अग्रोहा की नींव रखे थे, अग्रसेन नृपराज महान।
धन वैभव से पूर्ण नगर ये, माता लक्ष्मी का वरदान।।
आपस के भाईचारे पे, अग्रोहा की थी बुनियाद।
एक रुपैया एक ईंट के, सिद्धांतों पर ये आबाद।।
ऊँच नीच का भेद नहीं था, वासी सभी यहाँ संपन्न।
दूध दही की बहती नदियाँ, प्राप्य सभी को धन अरु अन्न।।
पूर्ण अहिंसा पर जो आश्रित, वणिक-वृत्ति को कर स्वीकार।
सवा लक्ष जो श्रेष्ठि यहाँ के, नाम कमाये कर व्यापार।।
कालांतर में अग्रसेन के, वंशज ‘अग्रवाल’ कहलाय।
सकल विश्व में लगे फैलने, माता लक्ष्मी सदा सहाय।।
गौत्र अठारह इनके शाश्वत, रिश्ते नातों के आधार।
मर्यादा में रह ये पालें, धर्म कर्म के सब व्यवहार।।
आशु बुद्धि के स्वामी हैं ये, निपुण वाकपटु चतुर सुजान।
मंदिर गोशाला बनवाते, संस्थाओं में देते दान।।
माँग-पूर्ति की खाई पाटे, मिलजुल करते कारोबार।
जो भी इनके द्वारे आता, पाता यथा योग्य सत्कार।।
सदियों से लक्ष्मी माता का, मिला हुआ पावन वरदान।
अग्रवंश के सुनो सपूतों, तुम्हें न ये दे दे अभिमान।।
धन-लोलुपता बढ़े न इतनी, स्वारथ में तुम हो कर क्रूर।
‘ईंट रुपैयै’ की कर बैठो, रीत सनातन चकनाचूर।।
‘अग्र’ भाइयों से तुम नाता, देखो लेना कभी न तोड़।
अपने काम सदा आते हैं, गैर साथ जब जायें छोड़।।
उत्सव की शोभा अपनों से, उनसे ही हो हल्का शोक।
अपने करते नेक कामना, जीवन में छाता आलोक।।
सगे बिरादर बांधव से सब, रखें हृदय से पूर्ण लगाव।
जैसे भाव रखेंगे उनमें, वैसे उनसे पाएँ भाव।।
अपनों की कुछ हो न उपेक्षा, धन दौलत में हो कर चूर।
नाम दाम सब धरे ही रहते, अपने जब हो जातें दूर।।
बूढ़े कहते आये हरदम, रुपयों की नहिं हो खनकार।
वैभव का तो अंध प्रदर्शन, अहंकार का करे प्रसार।।
अग्रसेन जी के युग से ही, अपनी यही सनातन रीत।
भाव दया के सब पर राखें, जीव मात्र से ही हो प्रीत।।
वैभव में कुछ अंधे होकर, भूल गये सच्ची ये राह।
जीवन का बस एक ध्येय रख, मिल जाये कैसे भी वाह।।
अंधी दौड़ दिखावे की कुछ, इस समृद्ध-कुल में है आज।
वंश-प्रवर्तक के मन में भी, लख के आती होगी लाज।।
छोड़ें उत्सव, खुशी, व्याह को, अरु उछाव के सारे गीत।
बिना दिखावे के नहिं निभती, धर्म कर्म तक की भी रीत।।
‘बासुदेव’ विक्षुब्ध देख कर, ‘अग्र’ वंश की अंधी चाल।
अब समाज आगे आ रोके, निर्णय कर इसको तत्काल।।
आल्हा छंद विधान की लिंक –> (आल्हा छंद विधान)
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया
नाम- बासुदेव अग्रवाल;
जन्म दिन – 28 अगस्त, 1952;
निवास स्थान – तिनसुकिया (असम)
रुचि – काव्य की हर विधा में सृजन करना। हिन्दी साहित्य की हर प्रचलित छंद, गीत, नवगीत, हाइकु, सेदोका, वर्ण पिरामिड, गज़ल, मुक्तक, सवैया, घनाक्षरी इत्यादि।
सम्मान- मेरी रचनाएँ देश के सम्मानित समाचारपत्र और अधिकांश प्रतिष्ठित वेब साइट में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। हिन्दी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं।
प्रकाशित पुस्तकें- गूगल प्ले स्टोर पर मेरी दो निशुल्क ई बुक प्रकाशित हैं।
(1) “मात्रिक छंद प्रभा” जिसकी गूगल बुक आइ डी :- 37RT28H2PD2 है। (यह 132 पृष्ठ की पुस्तक है जिसमें मात्रिक छंदों की मेरी 91 कविताएँ विधान सहित संग्रहित हैं। पुस्तक के अंत में ‘मात्रिक छंद कोष’ दिया गया है जिसमें 160 के करीब मात्रिक छंद विधान सहित सूचीबद्ध हैं।)
(2) “वर्णिक छंद प्रभा” जिसकी गूगल बुक आइ डी :- 509X0BCCWRD है। (यह 134 पृष्ठ की पुस्तक है जिसमें वर्णिक छंदों की मेरी 95 कविताएँ विधान सहित संग्रहित हैं। पुस्तक के अंत में ‘वर्णिक छंद कोष’ दिया गया है जिसमें 430 के करीब वर्णिक छंद विधान सहित सूचीबद्ध हैं।)
मेरा ब्लॉग:
आल्हा छंद में महाराजा अग्रसेनजी पर विस्तृत, ज्ञानवर्धक रचना हुई है।
अग्रवाल समाज के लिए यह गौरव की बात है कि आप जैसे छंदों के ज्ञाता का जन्म इस कुल में हुआ है।
यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि मैंने तो अग्रसेनजी पर इतनी सुंदर रचना आज तक नहीं पढ़ी।
जय अग्रसेनजी
जय अग्रवाल
शुचिता बहन अग्रवाल समाज के संस्थापक महाराज अग्रसेन जी के पद चिन्हों पर पर चलना हर अग्रवाल भाई बहन का परम धर्म है। इस कविता के माध्यम से इसे लोगों तक पहुँचाने का मेरा प्रयास तुम्हारी भूरी भूरी प्रशंसा से सफलीभूत हुआ। तुम्हारा आत्मिक धन्यवाद।
अग्रसेन जयंती के शुभ अवसर पर अग्रवाल समाज को चेताती आल्हा छंद की आपकी रह रचना अमूल्य भेंट है।
आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हृदयतल से धन्यवाद।