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इंदिरा छंद / राजहंसी छंद

“पथिक”

तमस की गयी ये विभावरी।
हृदय-सारिका आज बावरी।।
वह उड़ान उन्मुक्त है भरे।
खग प्रसुप्त जो गान वो करे।।

अरुणिमा रही छा सभी दिशा।
खिल उठा सवेरा, गयी निशा।।
सतत कर्म में लीन हो पथी।
पथ प्रतीक्ष तेरे महारथी।।

अगर भूत तेरा डरावना।
पर भविष्य आगे लुभावना।।
रह न तू दुखों को विचारते।
बढ़ सदैव राहें सँवारते।।

कर कभी न स्वीकार हीनता।
जगत को दिखा तू न दीनता।।
सजग तू बना ले शरीर को।
‘नमन’ विश्व दे कर्म वीर को।।
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इंदिरा छंद / राजहंसी छंद विधान :-

“नररलाग” से छंद लो तिरा।
मधुर ‘राजहंसी’ व ‘इंदिरा’।।

“नररलाग” = नगण रगण रगण + लघु गुरु
111 212  212 12,
चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत।

राजहंसी छंद के नाम से भी यह छंद प्रसिद्ध है।
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वर्णिक छंद के विषय में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें —-> (वर्णिक छंद परिभाषा)

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

6 Responses

  1. इंदिरा छंद का बहुत ही सुंदर विश्लेषण सराहनीय है। भविष्य में आप ऐसे ही मार्गदर्शन करते रहें। धन्यवाद।

    1. आदरणीय सुनील यादव जी आपका कविकुल वेब साइट में स्वागत है। आपकी नव उत्साह का संचार करती प्रतिक्रिया का हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ।

  2. इंदिरा छंद में बहुत ही सुंदर संदेशप्रद रचना है।
    सही कहा आपने की भूत यदि निराशजनक परन्तु भविष्य लुभावना लगे तो तुरंत हमें आगे बढ़ना चाहिए न कि भूत के बारे में सोचकर बैठे रहना चाहिए।
    अति उत्तम सृजन भैया।

    1. शुचिता बहन कविता के केंद्र भाव तुम तक संप्रेषित हुए और तुम्हारी सरस टिप्पणी प्राप्त हुई, जिसके लिए मैं हार्दिक धन्यवाद व्यक्त करता हूँ।

  3. इंदिरा छंद में जो बीत गया उसे भूल आगे बढने का बहुत सुंदर संदेश देती कविता।

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