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चंचला छंद

“बसंत वर्णन”

छा गयी सुहावनी बसंत की छटा अपार।
झूम के बसंत की तरंग में खिली बहार।।
कूँज फूल से भरे तड़ाग में खिले सरोज।
पुष्प सेज को सजा किसे बुला रहा मनोज।।

धार पीत चूनड़ी समस्त क्षेत्र हैं विभोर।
झूमते बयार संग ज्यों समुद्र में हिलोर।।
यूँ लगे कि मस्त वायु छेड़ घूँघटा उठाय।
भू नवीन व्याहता समान ग्रीव को झुकाय।।

कोयली सुना रही सुरम्य गीत कूक कूक।
प्रेम-दग्ध नार में रही उठाय मूक हूक।।
बैंगनी, गुलाब, लाल यूँ भए पलाश आज।
आ गया बसंत फाग खेलने सजाय साज।।

आम्र वृक्ष स्वर्ण बौर से लदे झुके लजाय।
अप्रतीम ये बसंत की छटा रही लुभाय।।
हास का विलास का सुरम्य भाव दे बसंत।
काव्य-विज्ञ को प्रदान कल्पना करे अनंत।।
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चंचला छंद विधान – (वर्णिक छंद परिभाषा) <– लिंक

“राजराजराल” वर्ण षोडसी रखो सजाय।
‘चंचला’ सुछंद राच आप लें हमें लुभाय।।

“राजराजराल” = रगण जगण रगण जगण रगण लघु
21×8 = 16 वर्ण प्रत्येक चरण का वर्णिक छंद। 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

6 Responses

  1. अति सुन्दर प्रस्तुति दी है आपने।मन गदगद हो गया चंचला छंद के बसंत आंगन में।आदरणीय महोदय बच्चा बिहारी का सप्रेम अभिनंदन स्वीकार करें।✍️

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