चंचला छंद
“बसंत वर्णन”
छा गयी सुहावनी बसंत की छटा अपार।
झूम के बसंत की तरंग में खिली बहार।।
कूँज फूल से भरे तड़ाग में खिले सरोज।
पुष्प सेज को सजा किसे बुला रहा मनोज।।
धार पीत चूनड़ी समस्त क्षेत्र हैं विभोर।
झूमते बयार संग ज्यों समुद्र में हिलोर।।
यूँ लगे कि मस्त वायु छेड़ घूँघटा उठाय।
भू नवीन व्याहता समान ग्रीव को झुकाय।।
कोयली सुना रही सुरम्य गीत कूक कूक।
प्रेम-दग्ध नार में रही उठाय मूक हूक।।
बैंगनी, गुलाब, लाल यूँ भए पलाश आज।
आ गया बसंत फाग खेलने सजाय साज।।
आम्र वृक्ष स्वर्ण बौर से लदे झुके लजाय।
अप्रतीम ये बसंत की छटा रही लुभाय।।
हास का विलास का सुरम्य भाव दे बसंत।
काव्य-विज्ञ को प्रदान कल्पना करे अनंत।।
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चंचला छंद विधान – (वर्णिक छंद परिभाषा) <– लिंक
“राजराजराल” वर्ण षोडसी रखो सजाय।
‘चंचला’ सुछंद राच आप लें हमें लुभाय।।
“राजराजराल” = रगण जगण रगण जगण रगण लघु
21×8 = 16 वर्ण प्रत्येक चरण का वर्णिक छंद। 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

परिचय
नाम- बासुदेव अग्रवाल;
जन्म दिन – 28 अगस्त, 1952;
निवास स्थान – तिनसुकिया (असम)
रुचि – काव्य की हर विधा में सृजन करना। हिन्दी साहित्य की हर प्रचलित छंद, गीत, नवगीत, हाइकु, सेदोका, वर्ण पिरामिड, गज़ल, मुक्तक, सवैया, घनाक्षरी इत्यादि। हिंदी साहित्य की पारंपरिक छंदों में विशेष रुचि है और मात्रिक एवं वर्णिक लगभग सभी प्रचलित छंदों में काव्य सृजन में सतत संलग्न।
सम्मान- मेरी रचनाएँ देश की सम्मानित वेब पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं।
मेरा ब्लॉग:-
बसन्त ऋतु के मनभावक, अनुपम सौंदर्य का चंचला छंद में अतीव मनोहारी वर्णन किया है आपने भैया।
बहुत सुंदर सृजन।
शुचिता बहन तुम्हारी मोहक टिप्पणी का हार्दिक धन्यवाद।
बसंत आगमन के अवसर पर बसंत के रंग भरती आपकी सुंदर रचना।
आपकी सुंदर टिप्पणी का आत्मिक आभार।