ताटंक छंद (गीत)
‘भँवर’
बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पाई है।
राहों में अपने दलदल की, खोदी मैंने खाई है।।
कच्ची माटी के ढेले सा, मन कोमल सा मेरा था।
जिधर मिला बल उधर लुढ़कता, कहाँ स्वार्थ ने घेरा था।।
पकते तन पर धीरे धीरे, मलिन परत चढ़ आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पायी है।।
निंदा, लालच, द्वेष, क्रोध, छल, विकसित हर पल होते हैं।
बोझ तले जो इनके दबते, मानवता को खोते हैं।।
त्यागो इनको आज अभी से, एक यही भरपायी है।
बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पायी है।।
सोचो मानव जीवन पाकर, क्या खोया क्या पाया है?
कैसे-कैसे गुण आने थे, देखो क्या-क्या आया है।।
बंद आँख थी आज खुली है, खुलते ही भर आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पायी है।।
हे प्रभु इतना ही बस चाहूँ, अवगुण अपने धो डालूँ।
दोषों को त्यज सद्गुण सारे , अब जीवन में मैं पालूँ।।
दर पर शुचि जीवन नैया को, लेकर तेरे आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पायी है।।
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शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया, असम
नाम-
शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
(विद्यावाचस्पति)
जन्मदिन एवम् जन्मस्थान-
26 नवम्बर 1969, सुजानगढ़ (राजस्थान)
पिता-स्वर्गीय शंकर लालजी ढोलासिया
माता- स्वर्गीय चंदा देवी
परिचय-मैं असम प्रदेश के तिनसुकिया शहर में रहती हूँ। देश की अनेक साहित्यिक प्रतिष्ठित शाखाओं से जुड़ी हुई हूँ।
सम्मान पत्र- कविसम्मेलन,जिज्ञासा,रचनाकार,साहित्य संगम संस्थान,काव्य रंगोली,आदि संस्थाओं से सम्मान पत्र प्राप्त हुए।
काव्य रंगोली’ द्वारा ‘समाज भूषण-2018’
“आगमन” द्वारा ‘आगमन काव्य विदुषी सम्मान-2019’ एवं साहित्य के क्षेत्र में प्राइड वीमेन ऑफ इंडिया ‘2022’ प्राप्त हुआ है।
साहित्य संगम संस्थान द्वारा “विद्यावाचस्पति(डॉक्टरेट)” की मानद उपाधि से सम्मानित हुई हूँ।
प्रकाशित पुस्तकें- मेरे एकल 5 कविता संग्रह “दर्पण” “साहित्य मेध” “मन की बात ” “काव्य शुचिता” तथा “काव्य मेध” हैं। मेरी साझा पुस्तकों,पत्रिकाओं,समाचार पत्रों तथा वेबसाइट्स पर समय-समय पर रचनाएं प्रकाशित होती हैं।
बहुत सुंदर विचारों से परिपूर्ण रचना।
बहुत बहुत आभार आपका।
शुचिता बहन उत्कृष्ट आत्म मंथन और अंत में दृढ निश्चय।
उत्साहित करती प्रतिक्रिया हेतु आभार भैया।