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भूमिसुता छंद

“जीव हिंसा”

जीवों की हिंसा प्राणी क्यों, हो करते।
तेरे कष्टों से ही आहें, ये भरते।।
भारी अत्याचारों को ये, झेल रहे।
इन्सां को मूकों की पीड़ा, कौन कहे।।

कष्टों के मारे बेचारे, जीव सभी।
पूरी जो ना हो राखे ना, चाह कभी।।
जो भी दे दो वो ही खा के, मस्त रहे।
इन्सां तेरे दुःखों को क्यों, मूक सहे।।

जाँयें तो जाँयें कैसे ये, भाग कहीं।
प्राणों के घाती ही पायें, जाँय वहीं।।
इंसानों ने भी राखा है, बाँध इन्हें।
थोड़ी भी आजादी है दी, नाँहि जिन्हें।।

लाचारी में पीड़ा झेलें, नित्य महा।
दुःखों में ऐसे हैं ये जो, जा न कहा।।
हैं संसारी रिश्ते नाते, स्वार्थ सने।
लागें हैं दूजों को सारे, ही डसने।।
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भूमिसुता छंद विधान –

“मामामासा” तोड़ो आठा, चार सजा।
सारे भाई चाखो छंदा, ‘भूमिसुता’।।

“मामामासा” = मगण मगण मगण सगण
222 222 22//2 112 = 12वर्ण का वर्णिक छंद, यति 8,4
चार चरण, दो दो समतुकांत।

वर्णिक छंद परिभाषा
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

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