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रतिलेखा छंद

“विरह विदग्धा”

मन तो ठहर ठहर अब, सकपकाये।
पिय की डगर निरख दृग, झकपकाये।।
तुम क्यों अगन सजन यह, तन लगाई।
यह चाह हृदय मँह प्रिय, तुम जगाई।।

तुम आ कर नित किस विध, गुदगुदाते।
सब याद सजन फिर हम, बुदबुदाते।।
अब चाहत पुनि चित-चक, चहचहाना।
नित दूर न रह प्रियवर, कर बहाना।।

दहके विरह अगन सह, हृदय भारी।
मन ही मन बिलखत यह, दुखित नारी।।
सजना किन गलियन मँह, रह रहे हो।
सरिता नद किन किन सह, बह रहे हो।।

तुम तो नव कलियन रस, नित चखो रे।
इस और कबहु मधुकर, नहिँ लखो रे।।
किस कारण विरहण सब, दुख सहेगी।
दुखिया यह पिय सँग अब, कब रहेगी।।
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रतिलेखा छंद विधान –

“सननानसग” षट दशम, वरण छंदा।
यति एक दश अरु पँचम, सु’रतिलेखा’।।

“सननानसग”= सगण नगण नगण नगण सगण गुरु।

( 112  111  111 11,1  112   2 ) = 16 वर्ण का वर्णिक छंद, यति 11 और 5 वर्णों पर, 4 पद, दो-दो पद समतुकांत।

वर्णिक छंद परिभाषा
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

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