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रोला छंद

“बाल-हृदय”

भेदभाव से दूर, बाल-मन जल सा निर्मल।
रहे सदा अलमस्त, द्वन्द्व से होकर निश्चल।।
बालक बालक मध्य, नेह शाश्वत है प्रतिपल।
देख बाल को बाल, हृदय का खिलता उत्पल।।

दो बालक अनजान, प्रीत से झट बँध जाते।
नर, पशु, पक्षी भेद, नहीं कुछ आड़े आते।।
है यह कथा प्रसिद्ध, भरत नृप बालक जब था।
सिंह शावकों संग, खेलता वन में तब था।।

नई चीज को देख, प्रबल उत्कंठा जागे।
जग के सारे भेद, जानने पीछे भागे।।
चंचल बाल अधीर, शांत नहिँ हो जिज्ञासा।
हर वह करे प्रयत्न, ज्ञान का जब तक प्यासा।।

बाल हृदय की थाह, बड़ी मुश्किल है पाना।
किस धुन में निर्लिप्त, किसी ने कभी न जाना।।
आसपास को देख, कभी हर्षित ये होता।
फिर तटस्थ हो बैठ, किसी धुन में झट खोता।।

मात्रिक छंद परिभाषा

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

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