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वंशस्थ छंद

“शीत-वर्णन”

तुषार आच्छादित शैल खण्ड है।
समस्त शोभा रजताभ मण्ड है।
प्रचण्डता भीषण शीत से पगी।
अलाव तापें यह चाह है जगी।।

समीर भी है सित शीत से महा।
प्रसार ऐसा कि न जाय ही सहा।
प्रवाह भी है अति तीव्र वात का।
प्रकम्पमाना हर रोम गात का।।

व्यतीत ज्यों ही युग सी विभावरी।
हरी भरी दूब तुषार से भरी।।
लगे की आयी नभ को विदारके।
उषा गले मौक्तिक हार धार के।।

लगा कुहासा अब व्योम घेरने।
प्रभाव हेमंत लगा बिखेरने।।
खिली हुई धूप लगे सुहावनी।
सुरम्य आभा लगती लुभावनी।।
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वंशस्थ छंद विधान – (वर्णिक छंद परिभाषा)

“जताजरौ” द्वादश वर्ण साजिये।
प्रसिद्ध ‘वंशस्थ’ सुछंद राचिये।।

“जताजरौ” = जगण, तगण, जगण, रगण
121 221 121 212

(वंशस्थ छंद के प्रत्येक चरण में 12 वर्ण होते हैं।
दो दो या चारों चरण समतुकांत।)
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

8 Responses

  1. वंशस्थ छंद में शीत ऋतु की पूरी छवि पटल पर उतार कर रख दी है। बहुत मनोहारी रचना।

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