वसन्ततिलका छंद
“मनोकामना”
मैं पुण्य भारत धरा, पर जन्म लेऊँ।
संस्कार वैदिक मिले, सब देव सेऊँ।।
यज्ञोपवीत रखके, नित नेम पालूँ।
माथे लगा तिलक मैं, रख गर्व चालूँ।।
गीता व मानस करे, दृढ़ राह सारी।
सत्संग प्राप्ति हर ले, भव-ताप भारी।।
सिद्धांत विश्व-हित के, मन में सजाऊँ।
हिंसा प्रवृत्ति रख के, न स्वयं लजाऊँ।।
सारी धरा समझ लूँ, परिवार मेरा।
हो नित्य ही अतिथि का, घर माँहि डेरा।।
देवों समान उनको, समझूँ सदा ही।
मैं आर्ष रीति विधि का, बन जाऊँ वाही।।
प्राणी समस्त सम हैं, यह भाव राखूँ।
ऐसे विचार रख के, रस दिव्य चाखूँ।।
हे नाथ! पूर्ण करना, मन-कामना को।
मेरी सदैव रखना, दृढ भावना को।।
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वसन्ततिलका छंद विधान – (वर्णिक छंद परिभाषा)
“ताभाजजागगु” गणों पर वर्ण राखो।
प्यारी ‘वसन्ततिलका’ तब छंद चाखो।।
“ताभाजजागगु” = तगण, भगण, जगण, जगण और दो गुरु।
221 211 121 121 22
वसन्ततिलका छंद चौदह वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छन्द है। यति 8,6 पर रखने से छंद मधुर लगता है पर आवश्यक नहीं है। उदाहरण देखिए:
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा |
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां में कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ||
(सुंदरकांड)
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

परिचय
नाम- बासुदेव अग्रवाल;
जन्म दिन – 28 अगस्त, 1952;
निवास स्थान – तिनसुकिया (असम)
रुचि – काव्य की हर विधा में सृजन करना। हिन्दी साहित्य की हर प्रचलित छंद, गीत, नवगीत, हाइकु, सेदोका, वर्ण पिरामिड, गज़ल, मुक्तक, सवैया, घनाक्षरी इत्यादि। हिंदी साहित्य की पारंपरिक छंदों में विशेष रुचि है और मात्रिक एवं वर्णिक लगभग सभी प्रचलित छंदों में काव्य सृजन में सतत संलग्न।
सम्मान- मेरी रचनाएँ देश की सम्मानित वेब पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं।
मेरा ब्लॉग:-
आपने अपनी कविता में बहुत उच्च कोटि की अनुकरणीय मनोकामना व्यक्त की है।
आपकी हृदय खिलाती प्रतिक्रिया का हार्दिक धन्यवाद।
वसन्ततिलका वर्णिक छंद के माध्यम से आपने अपनी संस्कृति से जुड़ी हुई मनोकामना का बहुत ही सुंदर प्रदर्शन किया है। सनातन सिद्धांतों का गर्व से पालन करने की आपकी कामना वास्तव में बहुत ही प्रसंसनीय है।
हालांकि इस रचना में उपदेश नहीं दिया गया है बल्कि कवि की अपनी इच्छा प्रकट हुई है जो कि सभी के लिए अनुकरणीय भी है।
इतनी कठिन छंद में भावों की एकरूपता दुर्लभ है।
कितनी सुंदर पंक्तियाँ है ये-
“यज्ञोपवीत रखके, नित नेम पालूँ।
माथे लगा तिलक मैं, रख गर्व चालूँ।।”
शुचिता बहन इस छंद पर तुम्हारी भाव भीनी प्रतिक्रिया पा कर अभिभूत हूँ। सनातन छंदों, सनातन सिद्धांतों के प्रति गौरव का भाव जगाने के लिए ही रह रचना लिखी थी जो सार्थक हुई। तुम्हारा आत्मिक धन्यवाद।