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कामरूप /वैताल छंद

‘माँ की रसोई’

माँ की रसोई, श्रेष्ठ होई, है न इसका तोड़।
जो भी पकाया, खूब खाया, रोज लगती होड़।।
हँसकर बनाती, वो खिलाती, प्रेम से खुश होय।
था स्वाद मीठा, जो पराँठा, माँ खिलाती पोय।।

खुशबू निराली, साग वाली, फैलती चहुँ ओर।
मैं पास आती, बैठ जाती, भूख लगती जोर।।
छोंकन चिरौंजी, आम लौंजी, माँ बनाती स्वाद।
चाहे दही हो, छाछ ही हो, वह रहे नित याद।।

मैं रूठ जाती, वो मनाती, भोग छप्पन लाय।
सीरा कचौरी या पकौड़ी, सोंठ वाली चाय।।
चावल पकाई, खीर लाई, तृप्त मन हो जाय।
मुझको खिलाकर, बाँह भरकर, माँ रहे मुस्काय।।

चुल्हा जलाती, फूँक छाती, नीर झरते नैन।
लेकिन न थकती, काम करती, और पाती चैन।।
स्वादिष्ट खाना, वो जमाना, याद आता आज।
उस सी रसोई, है न कोई, माँ तुम्ही सरताज।।

कामरूप छंद विधान – https://kavikul.com/कामरूप-छंद-आज-की-नारी

शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया, असम

6 Responses

  1. वाह्ह …’ माँ की रसोई ‘ .. बहुत सुंदर भाव संकलित किये हैं बधाई..
    लेकिन खड़ी बोली में…’तोय’, ‘पोय’ , ‘होई’, ‘लाय’ ‘मुस्काय’ जैसे देशज/अपभ्रंश शब्दों ने रचना की मोहकता कम कर दी है..अन्यथा माँ की रसोई बहुत स्वादिष्ट बनी है ।

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