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चौपाई छंद

‘माँ की वेदना’

बेटी ने खुशियाँ बरसाई। जिस दिन वो दुनिया में आई।।
उसके आने से मन महका। कोना-कोना घर का चहका।।

जीवन में फैला उजियारा। समय बीतता उस पर सारा।।
झूला बाहों का था डाला। हरख-हरख बेटी को पाला।।

वो रोती तो मैं रो देती। हँसती तो मैं भी हँस लेती।।
नखरे उसके मुझे सुहाते। सपने उसके मन को भाते।।

चाव चढ़ाकर उसे पढ़ाती। डाँटा भी तो गले लगाती।।
आगे बढ़ना सदा सिखाया। मार्ग लक्ष्य का उसे दिखाया।।

कर्तव्यों को धारण करना। सहनशक्ति रख सदा उभरना।
लेकिन अत्याचार न सहना। निर्बल बनकर कभी न रहना।।

बचपन से यौवन की दूरी। पलक झपकते होती पूरी।।
रीति बड़ी यह है दुखदाई। सदा बेटियाँ हुई पराई।।

ब्याह रचा पर घर अपनाती। साथ पिया का सदा निभाती।।
बन्धन में जकड़ी सी जाती। यदा-कदा पीहर अब आती।।

मेरे मन को विरह सताये। बिन बिटिया के रहा न जाये।।
व्याकुल मन बेटी को तरसे। झर-झर आँसू जब-तब बरसे।।

अब जब मिलने वो है आती। गिनती कर दिन रहकर जाती।।
भूली मैं अधिकार जताना। बेटी पर धन है यह माना।

चौपाई छंद विधान

मात्रिक छंद परिभाषा

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शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया, असम

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