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ताटंक छंद (गीत)

‘भँवर’

बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पाई है।
राहों में अपने दलदल की, खोदी मैंने खाई है।।

कच्ची माटी के ढेले सा, मन कोमल सा मेरा था।
जिधर मिला बल उधर लुढ़कता, कहाँ स्वार्थ ने घेरा था।।
पकते तन पर धीरे धीरे, मलिन परत चढ़ आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पायी है।।

निंदा, लालच, द्वेष, क्रोध, छल, विकसित हर पल होते हैं।
बोझ तले जो इनके दबते, मानवता को खोते हैं।।
त्यागो इनको आज अभी से, एक यही भरपायी है।
बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पायी है।।

सोचो मानव जीवन पाकर, क्या खोया क्या पाया है?
कैसे-कैसे गुण आने थे, देखो क्या-क्या आया है।।
बंद आँख थी आज खुली है, खुलते ही भर आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पायी है।।

हे प्रभु इतना ही बस चाहूँ, अवगुण अपने धो डालूँ।
दोषों को त्यज सद्गुण सारे , अब जीवन में मैं पालूँ।।
दर पर शुचि जीवन नैया को, लेकर तेरे आयी है।
बीच भँवर में अटकी नैया, मंजिल छू ना पायी है।।

मात्रिक छंद परिभाषा

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शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया, असम

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