Categories
Archives

भृंग छंद

“विरह विकल कामिनी”

सँभल सँभल चरण धरत, चलत जिमि मराल।
बरनउँ किस विध मधुरिम, रसमय मृदु चाल।।
दमकत तन-द्युति लख कर, थिर दृग रह जात।
तड़क तड़ित सम चमकत, बिच मधु बरसात।।

शशि-मुख छवि अति अनुपम, निरख बढ़त प्यास।
रसिक हृदय मँह यह लख, जगत मिलन आस।।
विरह विकल अति अब यह, कनक वरण नार।
दिन निशि कटत न समत न, तरुण-वयस भार।।

अँखियन थकि निरखत मग, इत उत हर ओर।
हलचल विकट हृदय मँह, उठत अब हिलोर।
पुनि पुनि यह कथन कहत, सुध बिसरत मोर।
लगत न जिय पिय बिन अब, बढ़त अगन जोर।।

मन हर कर छिपत रहत, कित वह मन-चोर।
दरसन बिन तड़पत दृग, कछु न चलत जोर।।
विरह डसन हृदय चुभत, मिलत न कछु मन्त्र।
जलत सकल तन रह रह, कछुक करहु तन्त्र।।
===================

भृंग छंद विधान –

“ननुननुननु गल” पर यति, दश द्वय अरु अष्ट।
रचत मधुर यह रसमय, सब कवि जन ‘भृंग’।।

“ननुननुननु गल” = नगण की 6 आवृत्ति फिर गुरु लघु।

111 111 111 111 // 111 111 21 = 20 वर्ण का वर्णिक छंद, यति 12, 8 वर्ण पर, 4 पद, 2-2 पद समतुकांत।

वर्णिक छंद परिभाषा
******************

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

4 Responses

  1. इस कविता में एक विरह वेदना से तड़पती नारी का बहुत सुंदर चित्रण हुआ है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *