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वरूथिनी छंद

“प्रदीप हो”

प्रचंड रह, सदैव बह, कभी न तुम, अधीर हो।
महान बन, सदा वतन, सुरक्ष रख, सुवीर हो।।
प्रयत्न कर, बना अमर, अटूट रख, अखंडता।
कभी न डर, सदैव धर, रखो अतुल, प्रचंडता।।

निशा प्रबल, सभी विकल, मिटा तमस, प्रदीप हो।
दरिद्र जन , न वस्त्र तन, करो सुखद, समीप हो।।
सुकाज कर, गरीब पर, सदैव तुम, दया रखो।
मिटा विपद, उन्हें सुखद, बना सरस, सुधा चखो।।

हुँकार भर, दहाड़ कर, जवान तुम, बढ़े चलो।
त्यजो अलस, न हो विवस, मशाल बन, सदा जलो।।
अराति गर, उठाय सर, दबोच तुम, उसे वहीं।
धरो पकड़, रखो जकड़, उसे भगन, न दो कहीं।

प्रशस्त नभ, करो सुलभ, सभी डगर, बिना रुके।
रहो सघन, डिगा न मन, बढ़ो युवक, बिना झुके।।
हरेक थल, रहो अटल, विचार नित, नवीन हो।
बढ़ा वतन, छुवा गगन, सभी जगह, प्रवीन हो।।
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वरूथिनी छंद विधान:- (वर्णिक छंद परिभाषा)

“जनाभसन,जगा” वरण, सुछंद रच, प्रमोदिनी।
विराम सर,-त्रयी सजत, व चार पर, ‘वरूथिनी’।।

“जनाभसन,जगा” = जगण+नगण+भगण+सगण+नगण+जगण+गुरु
121 11,1 211 1,12 111, 121 2
सर,-त्रयी सजत = सर यानि बाण जो पाँच की संख्या का भी द्योतक है। सर-त्रयी यानि 5,5,5।

(१९ वर्ण, ४ चरण, क्रमश: ५,५,५,४ वर्ण पर यति, दो-दो चरण समतुकान्त)
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

13 Responses

  1. एकदम सटीक,अनुशासित वर्ण और मात्रा का प्रयोग
    ।।अपको हार्दिक प्रणाम।।

  2. वाह ,ऐसी कविताएं तो स्कूल की किताबों मे पढ़ी।
    जबरदस्त लिखते हो आप।

  3. वाहः आत्मविश्वास की हुंकार भरती,ओजश्वी भावों का संचार करती अनुकरणीय रचना है यह। ऐसी कविताओं के माध्यम से लोगों को प्रेरित करते हुए जन सेवा करना उत्तम माध्यम है।
    अन्तर्यति से रचना का माधुर्य तो बढ़ा ही है साथ ही आपके काव्य कौशल की झलक इसमें साफ उजागर हो रही है।
    अतिशय बधाई आपको।

    1. शुचिता बहन तुम्हारी भाव भीनी टिप्पणी से हृदय अभिभूत हुआ। ऐसी प्रतिक्रियाओं से ही रचनाकार को ऐसी ओज भरी रचना करने की अद्भुत प्रेरणा मिलती है

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