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शृंगार छंद

“सुख और दुख”

सुखों को चाहे सब ही जीव।
बिना सुख के जैसे निर्जीव।।
दुखों से भागे सब ही दूर।
सुखों में रहना चाहें चूर।।

जगत के जो भी होते काज।
एक ही है उन सब का राज।।
लगी है सुख पाने की आग।
उसी की सारी भागमभाग।।

सुखों के जग में भेद अनेक।
दोष गुण रखे अलग प्रत्येक।।
किसी की पर पीड़न में प्रीत।
कई समझें सब को ही मीत।।

किसी की संचय में है राग।
बहुत से जग से रखे न लाग।।
धर्म में दिखे किसी को मौज।
पाप कोई करता है रोज।।

झेल दुख को जो भरते आह।
छिपी सुखकी उन सब में चाह।।
जगत में कभी मान अपमान।
जान लो दोनों एक समान।।

कभी सुख कभी दुखों का साथ।
धैर्य का किंतु न छोड़ें हाथ।।
दुखों की झेलो खुश हो गाज़।
इसी में छिपा सुखों का राज।।

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शृंगार छंद विधान –

शृंगार छंद बहुत ही मधुर लय का 16 मात्रा का चार चरण का छंद है। तुक दो दो चरण में है। इसकी मात्रा बाँट 3 – 2 – 8 – 3 (ताल) है। प्रारंभ के त्रिकल के तीनों रूप मान्य है जबकि अंत का त्रिकल केवल दीर्घ और लघु (21) होना चाहिए। द्विकल 1 1 या 2 हो सकता है। अठकल के नियम जैसे प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द का समाप्त न होना, 1 से 4 तथा 5 से 8 मात्रा में पूरित जगण का न होना और अठकल का अंत द्विकल से होना अनुमान्य हैं।

महा शृंगार छंद विधान –
शृंगार छंद का 32 मात्रा का द्विगुणित रूप महा शृंगार छंद कहलाता है। यह चार पदों का छंद है जिसमें तुकांतता 32 मात्रा के दो दो पदों में निभायी जाती है। यति 16 – 16 मात्रा पर पड़ती है।

मात्रिक छंद परिभाषा

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

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