द्रुतविलम्बित छंद
“गोपी विरह”
मन बसी जब से छवि श्याम की।
रह गई नहिँ मैं कछु काम की।
लगत वेणु निरन्तर बाजती।
श्रवण में धुन ये बस गाजती।।
मदन मोहन मूरत साँवरी।
लख हुई जिसको अति बाँवरी।
हृदय व्याकुल हो कर रो रहा।
विरह और न जावत ये सहा।।
विकल हो तकती हर राह को।
समझते नहिँ क्यों तुम चाह को।
उड़ गया मन का सब चैन ही।
तृषित खूब भये दउ नैन ही।।
मन पुकार पुकार कहे यही।
तु करुणाकर जानत क्या सही।
दरश दे कर कान्ह उबार दे।
नयन-प्यास बुझा अब तार दे।।
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द्रुतविलम्बित छंद विधान :- (वर्णिक छंद परिभाषा)
“नभभरा” इन द्वादश वर्ण में।
‘द्रुतविलम्बित’ दे धुन कर्ण में।।
नभभरा = नगण, भगण, भगण और रगण।(12 वर्ण)
111 211 211 212
दो दो चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

परिचय
नाम- बासुदेव अग्रवाल;
जन्म दिन – 28 अगस्त, 1952;
निवास स्थान – तिनसुकिया (असम)
रुचि – काव्य की हर विधा में सृजन करना। हिन्दी साहित्य की हर प्रचलित छंद, गीत, नवगीत, हाइकु, सेदोका, वर्ण पिरामिड, गज़ल, मुक्तक, सवैया, घनाक्षरी इत्यादि। हिंदी साहित्य की पारंपरिक छंदों में विशेष रुचि है और मात्रिक एवं वर्णिक लगभग सभी प्रचलित छंदों में काव्य सृजन में सतत संलग्न।
सम्मान- मेरी रचनाएँ देश की सम्मानित वेब पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं।
मेरा ब्लॉग:-
शानदार रचना।
यशश्वी धन्यवाद।
द्रुतविलम्बित छन्द में गोपियों की भावनाओं को बहुत ही सुंदर शब्दों से मार्मिकता का रूप दिया है भैया आपने।
शब्द चयन,विधान,लय, भाव सब कुछ अद्भुत।
हार्दिक बधाई।
शुचिता बहन छंद पर तुम्हारी इस सरस टिप्पणी का सहृदय धन्यवाद।