Categories
Archives

द्रुतविलम्बित छंद

“गोपी विरह”

मन बसी जब से छवि श्याम की।
रह गई नहिँ मैं कछु काम की।
लगत वेणु निरन्तर बाजती।
श्रवण में धुन ये बस गाजती।।

मदन मोहन मूरत साँवरी।
लख हुई जिसको अति बाँवरी।
हृदय व्याकुल हो कर रो रहा।
विरह और न जावत ये सहा।।

विकल हो तकती हर राह को।
समझते नहिँ क्यों तुम चाह को।
उड़ गया मन का सब चैन ही।
तृषित खूब भये दउ नैन ही।।

मन पुकार पुकार कहे यही।
तु करुणाकर जानत क्या सही।
दरश दे कर कान्ह उबार दे।
नयन-प्यास बुझा अब तार दे।।
===============

द्रुतविलम्बित छंद विधान :- (वर्णिक छंद परिभाषा)

“नभभरा” इन द्वादश वर्ण में।
‘द्रुतविलम्बित’ दे धुन कर्ण में।।

नभभरा = नगण, भगण, भगण और रगण।(12 वर्ण)
111 211 211 212

दो दो चरण समतुकांत।
*******************
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

4 Responses

  1. द्रुतविलम्बित छन्द में गोपियों की भावनाओं को बहुत ही सुंदर शब्दों से मार्मिकता का रूप दिया है भैया आपने।
    शब्द चयन,विधान,लय, भाव सब कुछ अद्भुत।
    हार्दिक बधाई।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *