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शैलसुता छंद

“जीवन पथ”

लगन लगी पथ जीवन का परिवर्तित मैं करके निखरूँ।
इस पथ के सब संकट को लख जीवन में न कभी बिखरूँ।।
अपयश, क्रोध, गुमान, अनादर, लालच, आलस छोड़ सकूँ।
सुख रस धार जहाँ बहती उस ओर सभी पथ मोड़ सकूँ।।

बदल चुका युग स्वार्थ धरा पर पाँव पसार रहा जम के।
तन मन खाय रही मद की लत लक्षण ये गहरे तम के।।
सब अवसादिक तत्व मिटाकर जोश उमंग भरूँ मन में।
दुखित सभी अपने समझूँ रसरंग भरा अपनेपन में।।

यह जन जीवन कंटक का वन मैं बन पुष्प सदा महकूँ।
भ्रमित करे पथ जो उस में पड़ मैं सुध खो न कभी बहकूँ।।
परहित भाव सदा सुखदायक, स्वार्थ बड़ा दुखदायक है।
ग्रहण करूँ वह सार अमोलक जो सुख मार्ग सहायक है।।

नर-तन है अति दुर्लभ पार करूँ इससे भवसागर को।
तन अरु निश्छल भाव भरा मन सौंप सकूँ नट नागर को।।
जतन करूँ मन से सुधरूँ समतामय जीवन ये कर दूँ।
सकल विकार मिटा कर के मन में ‘शुचि’ पावनता भर दूँ।।

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शैलसुता छंद विधान – (वर्णिक छंद परिभाषा)

शैलसुता छंद चार चरण का वर्णिक छंद होता है जिसमें दो- दो चरण समतुकांत होते हैं।

4 लघु + 6भगण (211)
+1 गुरु = 23 वर्ण

1111 + 211*6 + 2

इसी छंद में जब 13, 10 वर्ण पर यति की बाध्यता हो तो यही –
“कनक मंजरी छंद” कहलाती है।
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शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया, असम

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