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बादल दादा दादी जैसे,

‘कुकुभ छंद’

श्वेत, सुनहरे, काले बादल, आसमान पर उड़ते हैं।
धवल केश दादा-दादी से, मुझे दिखाई पड़ते हैं।।
मन करता बादल मुट्ठी में, भरकर अपने सहलाऊँ।
रमी हुई ज्यूँ मैं दादी के , केशों का सुख पा जाऊँ।।

रिमझिम बरसा जब करते घन, नभ पर नाच रहे मानो।
दादी मेरी पूजा करके, जल छिड़काती यूँ जानो।।
काली-पीली आँधी आती, झर-झर बादल रोते हैं।
गुस्से में जब होती दादी, बिल्कुल वैसे होते हैं।।

बड़े जोर से उमड़ घुमड़ जब, बादल गड़गड़ करते हैं।
दादी पर दादाजी मेरे, ऐसे बड़बड़ करते हैं।।
डरा डरा कर बिजली जैसे, चमके और कड़कती है।
वैसे ही दादी तब मेरी, सुध बुध खोय भड़कती है।।

चम चम करते चाँदी से घन, कभी हिलोरे लेते हैं।
मैं दौडूं तो साथ हमेशा, बादल मेरा देते हैं।
आसमान में विचरण करना, ज्यूँ बादल को आता है।
दादा-दादी के साये में, रहना मुझको भाता है।।

मात्रिक छंद परिभाषा

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शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया, असम

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