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स्रग्धरा छंद

“शिव स्तुति”

शम्भो कैलाशवासी, सकल दुखित की, पूर्ण आशा करें वे।
भूतों के नाथ न्यारे, भव-भय-दुख को, शीघ्र सारा हरें वे।।
बाघों की चर्म धारें, कर महँ डमरू, कंठ में नाग साजें।
शाक्षात् हैं रुद्र रूपी, मदन-मद मथे, ध्यान में वे बिराजें।।

गौरा वामे बिठाये, वृषभ चढ़ चलें, आप ऐसे दुलारे।
माथे पे चंद्र सोहे, रजत किरण से, जो धरा को सँवारे।।
भोले के भाल साजे, शुचि सुर-सरिता, पाप की सर्व हारी।
ऐसे न्यारे त्रिनेत्री, विकल हृदय की, पीड़ हारें हमारी।।

काशी के आप वासी, शुभ यह नगरी, मोक्ष की है प्रदायी।
दैत्यों के नाशकारी, त्रिपुर वध किये, घोर जो आततायी।।
देवों की पीड़ हारी, भयद गरल को, कंठ में आप धारे।
देवों के देव हो के, परम पद गहा, सृष्टि में नाथ न्यारे।।

भक्तों के प्राण प्यारे, घट घट बसते, दिव्य आशीष देते।
भोलेबाबा हमारे, सब अनुचर की, क्षेम की नाव खेते।।
कापाली शूलपाणी, असुर लख डरें, भक्त का भीत टारे।
हे शम्भो ‘बासु’ माथे, वरद कर धरें, आप ही हो सहारे।।

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स्त्रग्धरा छंद विधान – (वर्णिक छंद परिभाषा)

“माराभाना ययाया”, त्रय-सत यति दें, वर्ण इक्कीस या में।
बैठा ये सूत्र न्यारा, मधुर रसवती, ‘स्त्रग्धरा’ छंद राचें।।

“माराभाना ययाया”= मगण, रगण, भगण, नगण, तथा लगातार तीन यगण। (कुल 21 अक्षरी)
222 212 2,11 111 12,2 122 122
त्रय-सत यति दें= सात सात वर्ण पर यति।
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया

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